SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..... असाच को साधु मानना ........१३५... असाधु को साधु मानना रंभी मुनियो के योग्य नही है और ऐसे कार्य करने करानेवाले साधु नही, परन्तु असाधु हैं । ' सुसाधु के वेश मे रहते हुए भी वे असाधु (पाप श्रमण) है, जो सुन्दर और भव्य उपाश्रय, मुलायम एव शोभनिक वस्त्र तथा मनाज्ञ आहारादि मे आसक्त हो और ज्ञान ध्यान तथा संयम को भलाकर, आलसी होकर पड़े रहते हो । जो प्राणियो की यतना नही करते, उपकरणो की प्रतिलेखना नही करते अथवा प्रविधि से करते हैं, अपने उपकरणो को अव्यवस्थित रूप से इधर उधर पटकते रहते हैं, इर्यादि पांचो समिति के पालन मे बेपरवाही करते हैं, विकथा करते रहते हैं, जिनके उपदेश का लक्ष श्रोताओ का मनोरजन करना होता है, जो माया का सेवन करते हैं, अभिमान करते हैं, जिनका आचरण अविश्वास. जनक है, जो शान्त हुए विवाद को पुन पुन: जगाकर झगड़ा करते कराते हैं, जो रसलोलुप होकर मनोज्ञ आहार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, घृत, दुग्ध, दही आदि विगयो का बारबार सेवन करते है, सूर्योदय से लगाकर सूर्यास्त तक खाते रहते हैं और आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार पानी आदि का सेवन करते हैं, वे सभी पापश्रमण हैं। चारित्र धर्म' का बराबर पालन नहीं करते हुए भी जो अपने को शुद्धाचारी, तपस्वी तथा उत्तम साधु बतलाते हैं, वे वास्तव मे असाधु हैं। प्रागमो में पाच प्रकार के असाधु-कुशीलियो का वर्णन है, जो अपने को सुसाधु बतलाते हैं, किंतु वास्तव मे वे कुसाधु
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy