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________________ सुमार्ग को कुमार्ग मानना १२१ से आजाद हो जाय। आत्मा, जड़ के लक्ष से-पुद्गल की संगति से, पर मे सुख की प्राशा लगाकर, जड़ बन्धनो मे बधा है-पराधीन हमा' है, पुद्गल के अधिकार में पड़ गया है । इस पराधीनता से मुक्त' होने का मार्ग, एक मात्र प्रात्म लक्ष से की हुई सद् प्रवृत्ति ही' है। पोद्गलिक लक्ष बधनो को बढाता है और प्रात्म लक्ष मुक्त' करता है। जिसे मुक्ति की अभिलाषा है, उसे बंधच्छेद का मार्ग ही अपनाना पडेगा और वह मार्ग, संवर-निर्जरा से भिन्न नही हो सकता । संवर,बंधनो की वृद्धि को रोक देता है और निर्जरा, पूर्व बंधनो को काटती रहती है। इन दोनो चरणों से मोक्ष-मार्ग पर चलनेवाला, मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । यही सुमार्ग है। यही त्रिकाल अबाधित मोक्ष मार्ग है । गत अनादि काल मे जिन अनन्त जीवो की मुक्ति हुई है, वह इसी सुमार्ग से हुई है। वर्तमान में भी यही मार्ग है और भविष्य में भी अनन्त जीव इसी मार्ग पर चलकर मुक्त होगे। इसके सिवाय अन्य कोई उत्तम मार्ग नही है । यह त्रिकाल सत्य मार्ग है । समय का परिवर्तन अथवा जमाने की हवा या जनमत, इस सिद्धि-मार्ग को पलट नही सकते । संसार मे ऐसी कोई भी हस्ती नही जो 'बन्ध' तत्त्व की प्राराधना से मुक्ति दिला सके । जब धर्म पर जमाने का असर होता है, तो मुक्ति बन्द हो जाती है, मक्ति मार्ग भी (भरतादि मे छठे आदि ारे मे) बंद हो जाता है, परंतु जमाने का असर मुक्ति मार्ग को ही पलट दे-ऐसा कभी नही हो सकता।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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