SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुमार्ग को सुमार्ग समझना PHON सुमार्ग समझना भी मिथ्यात्व है । मिथ्यात्वी देव गुरु की मान्यता, देव या धर्म के नाम पर प्राणियो की हत्या - बलिदान - कुरबानी, काफिरो अथवा श्रनार्यों का हनन श्रादि अविरति क्रोधादि कषाय और पाँच इन्द्रियो का पोषण, ये सब ससार परिभ्रमण करने के मार्ग हैं | स्त्रियो के साथ नृत्य करना, ऋतुदान, क्न्यादान और तीर्थ स्नानादि अनेक प्रकार की पापजन्य - ससार वर्द्धक क्रियाओ को सन्मार्ग मानना मिथ्या मान्यता है । } ११७ साधना, साध्य की सिद्धि के लिये ही की जाती है । जब साधक यह मानता है कि - 'साध्य मुझ से दूर है, साध्य तक पहुँचने के लिये मुझे उस दूरी को पार करना ही होगा, तब वह उस दिशा मे आगे बढता है । यदि वह साध्य के अनुकूल मार्ग पर चले, तो सुमार्ग है और उल्टे या तिछे रास्ते से चले, तो वह कुमार्ग है | साध्य के अनुकूल चलना सुमार्ग है और साध्य के विपरीत मार्ग पर चलना कुमार्ग है । चलता तो सारा ससार है, अनादिकाल से जीव चलता ही प्राया है, उसका मार्ग कभी समाप्त हुग्रा ही नही । सिद्ध के अतिरिक्त कोई स्थिर नही है, संसारी जीव चलते ही रहते हैं । किंतु अधिकाश जीव ससार की ओर ही चलते है । एक बन्धन से छूटने के पूर्व ही दूसरे बन्धन की सामग्री तय्यार कर लेते है । कभी ऊँचा ( स्वर्ग मे ) कभी नीचा ( नर्क मे ) और कभी तिर्छा ( तिर्यंचादि मे), इस प्रकार भव- भ्रमण का मार्ग ही अपनाता है । शुभ कर्म करके स्वर्ग मे जाना भी संसार परिभ्रमण ही है । संसार के लक्ष से + जो भी क्रिया की जाती है, वह संसार को ही बढाती है और
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy