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________________ ११६ - सम्यक्त्व विमर्श वह प्रवृत्ति भी धर्म हो सकती है। निवृत्ति से ही आत्मा उन्नत होती है अथवा यो कहिए कि ज्यो-ज्यो निवृत्ति बढती है, त्योत्यो गुणो का विकास होता है। मिथ्यात्व की निवृत्ति होती है तब चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है और अविरति टलने पर पाँचवा और छठा गुणस्थान प्राप्त होता है । प्रमाद की निवृत्ति सातवाँ गुणस्थान, कषाय की बादरनिवृत्ति से सूक्ष्म संपराय तक की निवृत्ति क्रमश ८ वे से १० वा गुणस्थान, मोह निवृत्ति १२ वां गुणस्थान, ज्ञानावरणादि की आत्यतिक निवृत्ति १३ वाँ गुणस्थान और योग-निवृत्ति १४ वा गुणस्थान । यहाँ निवृत्ति की पराकाष्ठा है। मन वचन और काया की सर्वथा निवृत्ति यही होती है और पूर्ण रूप से सवर होता है। इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होने पर ही सादि अनन्त (शाश्वत) सुख प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार सिद्ध है कि धर्म, निवृत्ति प्रधान ही है और ध्येय भी यही होना चाहिए। किंतु आजकल के कुछ विद्वान् कहे जानेवाले व्यक्ति, धर्म के इस रूप को झुठलाकर धर्म को प्रवृत्ति प्रधान कहने की धृष्टता करते है । जान बूझकर धर्म का स्वरूप बिगाडते हैं, अपलाप करते हैं। यह भी मिथ्यात्व का परिणाम है । धर्म के वास्तविक रूप को दबाकर अन्यथा प्ररूपणा करना-धर्म को अधर्म बतलाना मिथ्यात्व ही है । इस मिथ्यात्व से सदैव दूर ही रहना चाहिए। ३ कुमार्ग को सुमार्ग समझना जिस मार्ग से संसार का परिभ्रमण बढे, जन्म मरण और दु.ख की परम्परा चले, वह कुमार्ग है। ऐसे कुमार्ग को
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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