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________________ ६. सम्यक्त्व विमर्श marnamanna थी, जब प्रभु ने अतिचारो का उपदेश करते हुए सर्व प्रथम दर्शनाचार मे लगनेवाले दोषो का दिग्दर्शन कराया, तो प्रानन्दजी सम्हल गये और प्रभु का उपदेश पूर्ण होते ही भगवान को वंदना नमस्कार करके दर्शनाचार संबधी उपरोक्त प्रतिज्ञा कर ली । भगवान् ने अतिचारो मे परपाषण्डी प्रशसा और 'परपाषण्डी सस्तव' का दोष बताया, तब श्री प्रानन्दजी ने इनको त्यागने के लिए अन्ययथिक शद्व से प्रतिज्ञा की। श्री आनन्दजी की प्रतिज्ञा के शव टीकाकार के अर्थ को सिद्ध कर रहे है। यदि कोई अन्ययूथिक का अर्थ भी 'पुद्गल प्रशंसा' करे,तो आगे आये हुए, 'वन्दना नमस्कार बोलना तथा आहारादि प्रतिलाभ का सबध वे पुद्गल के साथ कैसे जोडेगे ? 'परपाषण्ड प्रशंसा' का अर्थ टीकाकार ने तथा अन्य अर्थकारो ने-'अन्य तीर्थी की प्रशसा नही करना' किया है, वह सत्य ही है। इसकी पुष्टि प्रानन्दजी की प्रतिज्ञा से ही हो जाती है। इतना ही नही,उत्तराध्ययन अ.२८ के 'कुदंसणवज्जणा' नामक दर्शनाचार के विधान से विशेष सिद्धि हो जाती है। श्री गौतम भगवन् ने केशी श्रमण महाराज को कहा था कि "कुप्पवयण पासंडी, सव्ने उम्मग पट्टिया, सम्मग्गं तु जिणक्खायं,एस मग्गेहि उत्तमे।" यह प्रमाण भी परपरागत अर्थ को पुष्ट कर रहा है। - , . प्राचाराग तथा भगवती के-'निगंथं पारयणं अछे अयं परमछे सेसे अणठे-पाठ,निग्रंथ प्रवचन के अतिरिक्त
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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