SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परपाषडी प्रशंसा ८६ श्री आनन्दजी ने जब भगवान् के समक्ष व्रत धारण किये, तब त्रिलोकाधिपति ने अपने श्रीमुख से, आनन्द को श्रमणोपासक के व्रत मे लगने वाले दोषो को बताकर सावधान किया। भगवान् ने विरति के दोष तो बाद मे बताये, किंतु श्रावक के दर्शन गण को बिगाडने वाले शंकादि पांच दोषो को सब से पहले बताए । इसमे 'परपाषण्डप्रशसा' और 'परपाषण्ड सस्तव' ये दोष, क्रमश चौथा और पांचवां है । इनका अर्थ, टीकाकास श्री अभयदेवसूरिजी ने अन्य-दर्शनी की प्रशंसा करना बतलाया है । उपासकदसा की जितनी भी प्रावृत्तियें प्रकाशित हुईं, उन सब मे ऐसा ही अर्थ,जिनेश्वर भगवान् द्वारा भाषित अतिचारों का हुआ है और महानुभाव आनन्दजी ने भी यही अर्थ समझा था, तभी तो भगवान द्वारा समस्त अतिचारो को बता देने के बाद उन्होने अपनी सम्यक्त्व शुद्धि की तत्परता का इकरार करते हुए निवेदन किया कि "प्रभो ! मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से कभी भी अन्यतोथिक - जैनतीर्थ-संघ से भिन्न इतर तीर्थवाले-कुतीर्थी को, अन्ययूथिकदेव-हरिहरादि देवो को, अन्ययूथिक परिग्रहित को-जो जैन तीर्थ को छोडकर अन्य तीर्थी मे चला गया हो, इनको वन्दनादि करना, बिना बोलाए बोलना और भक्ति पूर्वक असनादि प्रतिलाभ नही करूँगा।' इस विषय मे उपासकदसा सूत्र का मूलपाठ-"नो खलु मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पभिई अन्नउत्थिए .... .स्पष्ट साक्षी है। महामना आनन्दजी ने श्रावक के व्रतो की प्रतिज्ञा तो की, किंतु दर्शन संबंधी प्रतिज्ञा नही हई
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy