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________________ २. जैनी:-यह बात ठीक नहीं है, क्यों कि जो मोटा और बड़ा हो क्या उसमें गुण, जी बमे होवें ? और जो ब्रोहा-पतला हो । समें गुण जी गेट्टे अर्थात् स्वल्प होवें ? पर। न्तु सूर्य तो एक देशी' और गेहा होता है, और उसका प्रकाश वमा सर्वव्यापक होता है, कहो जी, यह कैसे ? . . ... आरियाः-तुम इश्वर को कर्त्ता मानते हो वा नहीं ? . . . . . . जैनीः-ईश्वर कर्ता होता तो हम मानते क्यों नहीं ? . आरियाः-तो क्या ईश्वर कर्त्ता नहीं है? जैनीः-नहीं; क्यों कि हमारे सूत्रों में और हमारी बुद्धि के अनुसार, किसी प्रमाण से जी ईश्वर का सिद्ध नहीं हो सकता है: तुम ईश्वर को कर्त्ता मानते हो? ..
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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