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________________ अफसोस है कि ग्रन्थकर्ताके हाथकी लिखी इस ग्रन्धकीखास संपूर्ण प्रति हमको तलायश करनेसे भी नहीं मिली तथापि जितनी मिली उसके अनुसार जो प्रथमावृतिमें अशुद्धता रह गई थी इसमें प्रायः शुद्धकी गई है और बाकीका हिस्सा जैसाका वैसा गुजराती प्रतिके ऊपरसे यथाशक्ति उलथा किया गया है इस बात में खास करके मुनिश्रीवल्लभविजयजीकी मदद लीगई है इसलिये इस जगह मुनिश्रीका उपकार माना जाता है साथमें श्रीभावनगर की श्रीजैनधर्मप्रसारक सभाका भी उपकार माना जाता है कि जिस ने गुजराती में छपाकर इस ग्रन्थको हयात बना रखा जिससे आज यह दिनभी आगया जो निजभाषामें छपाकर अन्य प्रेमी भाइयों को इसका लाभ दिया गया। दृष्टिदोषान्मतेमाद्या, दादशुद्धं भवेदिह । तन्मिथ्यादुष्कृतं मेस्तु, शोध्यमा रनुप्रहात्॥ श्रीवीर संवत् २४२९ । विक्रम संवत् १९५९ । ईसविसन १९०३ आत्म संवत् ।७ श्रीसंघकादास जसवंतरायजैनी, लाहौर श्रीआत्मानंद जैनसभा पंजाबके हुकमसे।
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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