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________________ एकतालीसवां बोल-८५ यह है कि उप साधु में समभाव है और अपनी समबुद्धि से वह आहार को निर्दोष समझता है । अतएव उसे निर्दोष पाहार का ही फल प्राप्त होता है । छमस्थ साधु अपनी बुद्धि के अनुसार ही किसी बात का निर्णय कर सकता है । वह आहार अगर सदोष है तो सर्वज्ञ की दृष्टि मे है, साधु की दृष्टि मे तो वह निर्दोष हो है। अतएव साधु को कोई दोष नही लग सकता । इसके विपरीत, कोई साधु गोचरी के लिए गया । उसने सोचा-'यदि आहारपानी के विषय में पूछताछ करूगा और वह आहार-पानी दूषित ठहरेगा तो मैं उसे ले नही सकू गा । परिणाम यह होगा कि मैं आहारपानी से वचित रह जाऊ गा । अतएव पूछताछ न करना ही उचित है।' इस प्रकार विषम बुद्धि वाले साधु के लिए निर्दोष आहार भी दूषित होता है। ___ कहने का आशय यह है कि अगर अपना हृदय शुद्ध और बुद्धि सम हो तो विषम वस्तुप्रो का लाभ भी सम वस्तुओ जैसा और सम वस्तुओ जितना ही मिलता है। इ से विपरीत, हृदय अशुद्ध और बुद्धि विपरीत होगी तो सम वस्तुमो का परिणाम विषम वस्तुओ जैसा ही विपरीत होगा। उपर्युक्त कथन का आशय यह है कि अपनी बुद्धि सम रखनी चाहिए । प्रत्येक बात का समबुद्धिपूर्वक अर्थात विवेक के साथ विचार करने से ही आत्मा को यथेष्ट लाभ मिलता है। ज्ञानी पुरुषो का कथन है कि प्रत्येक बात तीन कारणो से की जाती है-एक आत्मोन्नति करने के लिए, दूसरे किसी के साथ व्यवहार करने के लिए और तीसरे वस्तुस्वरूप
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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