SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४-सम्यक्त्वपराक्रम (४) और धर्म में कौन सत्य है और कौन असत्य है ऐसी विवेकबुद्धि तो उत्पन्न हा जाती है परन्तु चारित्रमोहनीय के उदय के कारण वह अपन ज्ञान के अनुसार आचरण नही कर सकता। प्रश्न किया जा सकता है कि सभी बातो का निर्णय अगर वृद्धि द्वारा ही होता है तो फिर श्रद्धा की क्या श्रावश्यकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि बुद्धि को सम , रखना अर्थात् विवेर बुद्धि को प्रकट करना ही श्रद्धा है। श्री भाचाराग सूत्र में भी कहा है:- . 'समयं ति मनमाना एगया समया वा असमया वा समया होति त्ति उवि ाए। असमयं ति मन्यमाना एगया ममया वा असमया वा होति ति उबिहाए ।' भावार्थ किसी मनुष्य में भले ही अधिक बुद्धि न हो, फिर भी उसकी थोटी-पी वृद्धि भी अगर निष्पक्ष अर्थान सम हो तो उस मनुष्य के लिए सभी वरतुए सम बन जाती हैं। फिर भले ही कोई वस्तु पिम हो तो भी गमबुद्ध वाले को सम वस्तु द्वारा मिलने वाला लाभ मिल ही जाता है। उदाहरणार्थ - कोई साधु महाराज किसी के घर गोचरी के लिए गए । उन्होने अनी बुद्धि के अनुसार माहार-पानी के विषय में निर्णय कर लिया । साधु महाराज समवृद्धिपूर्वक निर्दीप आहार-पानी लेते है। परन्तु कदाचित् आहार पानी दूपिन होने पर भी माधु की समवृद्धि में वह निर्दीप मालूम हुआ हो और निर्दीप समझ कर ही उसे ग्रहण किया हो तो भी समबुद्धि के कारण मात्रु को दूपित आहार लेने का दोप नहीं लग सकता । यह ज्ञानी पुरुपो का कथन है । इसका कारण
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy