SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०-सम्यक्त्वपराक्रम (४) कितनी आवश्यकता है इस बात का विचार करी । जो व्यक्ति चचलता छोडकर निद्रा लेता है और इस प्रकार थोडे समय के लिए तथा विकृत रूप से भी मन को एकाग्र रखता है, वह शरीर को स्वस्थ रख सकता है । जो मनुष्य कामकाज मे ही लगा रहता है और यथासमय निद्रा नहीं लेता वह बीमार पड़ जाता है । जब विकृत रूप में भी मन को एकाग्र रखने से इतना अधिक लाभ होता है तो फिर सम्यक प्रकार से मन को एकाग्र बनाने से कितना लाभ होता होगा। मन' की एकाग्रता से आत्मा को अपूर्व लाभ होता है। लोग यह समझते है कि आनन्द कही बाहर से आता है, पर वास्तव मे आनन्द बाहर की वर तुओ मे नहीं है। आत्मा में ही अखूट आनद भरा हुआ है । आत्मा अपने में से ही आनन्द उपलब्ध करता है । मन को एकाग्र रखने से आत्मा मे आनन्द का स्रोत बहने लगता है । किसी भी वस्तु मे जो अानन्द दिखाई देता है, वह प्रानन्द इसी कारण आनन्द रूप मालूम होता है कि प्रात्मा मे आनन्द भरा हआ है। दुनिया की तमाम वस्तुए आत्मा के लिए ही हैं । प्रात्मा न हो तो इन वस्तुओ को कोई टके सेर भी न पूछे । वस्तुओ का मूल्य आकने वाला आत्मा ही है और इसीलिए कहा गया हैन सर्वस्य कामाय प्रियं भवति, प्रात्मनस्तु कामाय सर्व प्रिय भवति ।' उपनिषद्कार कहते हैं वस्तु को कोई वस्तु प्रिय नहीं है, आत्मा को ही वस्तु प्रिय लगती है। हीरा, माणिक, मोती वगैरह जो भी पदार्थ प्रिय मालूम होते है सो सब
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy