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________________ उनचालीसवां बोल-५३ में गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया है। इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने फर्माया - सहायता का त्याग करने से पहला लाभ तो एकाग्र भावना उत्पन्न होना है अर्थात् सहायत्याग से मन सकल्प-विकल्प का त्याग करके एकाग्र बन जाता है । स्वावलम्बी बन जाने से यह सकल्पविकल्प मन मे उत्पन्न नही होता कि कोई मुझे सहायता देगा या नहीं ? इस प्रकार मन एकाग्र सकल्प विकल्पहीन बनने से सहायता का त्यागी अपने आपको एकाकी-अकेलाअनुभव करने लगता है । तब वह दूसरो के साथ अधिक सभापण नहीं करता और 'प्रमुक काम करना है, अमुक काम नही करना है' इस प्रकार की झझटो से छुटकारा पा लेता है। किसी प्रकार के बाहरी झझट मे न पड़ने के कारण सहायत्यागी को किसी के साथ रगडा-झगडा (क्लेश) नहीं करना पडता । रगडे-झगडे न होने से उसमे कषायभाव पैदा नही होता । इस प्रकार सहायता का त्याग करके स्वावलम्बी बनने से जीवात्मा एकाग्रचित्त, एक की, अल्पभाषी, अल्पक्लेशी तथा अल्पकषायी बनता है, और सयम, सवर तथा समाधि मे अधिक दृढ होता है । इस तरह एक सहायता के त्याग से आत्मा को अनेक लाभ होते हैं । यह मूल सूत्र पर विचार किया गया । अब यह विचार वरना है कि इस सूत्र से हमे क्या सार लेना चाहिए ? इस सूत्र का प्रधान स्वर यह है कि स्वावलम्बी बनो, परावलम्बी नही, स्वतन्त्र बनो, परतन्त्र नही । प्राज लोग स्वतन्त्रता-स्वतन्त्रता चिल्लाते है, मगर स्वतन्त्र बनने के सच्चे मार्ग पर नही चलते । स्वतन्त्र बनने के लिए सर्व
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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