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________________ अड़तीसवां बोल-४६ आत्मा अजरामर होने के कारण अविनाशी है । आत्मा देही है, शरीर देह है । प्रात्मा देह रूपी गृह में निवास करता है। आत्मा शरीर का त्याग करना चाहे तो कर सकता है । शरीर में आसक्त रहने के कारण ही आत्मा को अनेक प्रकार के दुख सहन करने पड़ते हैं। शरीर और आत्मा मे क्या अन्तर है, यह बतलाते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा थाः वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ अर्थात् हे अर्जुन | तू शरीर को ही सर्वस्व मान बैठा है, परन्तु यह शरीर तो वस्त्र के समान है । जैसे फटेपुराने वस्त्र को उतार कर नवीन वस्त्र धारण करने में आनन्द माना जाता है, उसी प्रकार आत्मा ( देही ) भी शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके नवोन शरीर-वस्त्र धारण कर लेता है। तुम लोग शरीररूपी वस्त्र त्याग करते समय रुदन करते हो या प्रसन्न होते हो ? अगर तुम्हे यह ज्ञान हो जाये कि मैं आत्मा मरता नहीं, वरन् शरीररूपी वस्त्र बदल रहा है, तो शरीर त्याग करते समय तुम्हे जरा भी दु.ख नही होगा । जैसे ससार की और सम्पदाए पातीजाती रहती हैं उसी प्रकार शरीर भी बदलता रहता है । देह का नाश होता है, देही का नाश नहीं होता । देह का
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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