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________________ ४८-सम्यक्त्वपराक्रम (४) नमि राजर्षि देवेन्द्र को बतला रहे हैं कि जीवन-संग्राम किस प्रकार खेलना चाहिए ! श्रद्धा रूपी नगर, सवर-सयम रूपी आगल, क्षमा रूपी सुन्दर प्राकार, तीन गुप्ति रूपी दुर्जय किला, पराक्रम रूपी धनुष, इर्यासमिति रूपी डोरी और धैर्य रूपी केतन बनाकर सत्य के द्वारा परिमथन करना चाहिए। क्योकि तपश्चर्या रूपी बाणो से युक्त मुनिराज कर्म रूपी वख्तर को भेदन करके संग्राम में विजयी होते है और ससार के वन्धनो से मुक्त हो जाते हैं। ऊपर वणित आध्यात्मिक शत्रो द्वारा अगर कर्मशत्रुओ के साथ युद्ध किया जाये तो आध्यात्मिक शस्त्रो के सामने पाशविक शस्त्र निष्फल सावित होते हैं। इसमे तनिक भी सदेह नही है। प्राध्यात्मिक शक्ति के समक्ष पाशविक शक्ति सदैव परास्त होती है । आध्यात्मिक शक्ति देवी सपदा है और पाशविक शक्ति दानवी सपदा है। दैत्य हमेशा ही देवो से पराजित हुए हैं, ऐसा पौराणिक कथाओ मे सुना जाता है । इसका रहस्य यही है कि दानवी शक्ति दैविकआध्यात्मिक शक्ति के सामने परास्त हो जाती है । तुम भी आध्यात्मिक शस्त्रो द्वारा पाशविक शस्त्रो को पराजित करो। इसी मे तुम्हारा क्ल्याण है अहिंसा क्षमा, तपश्चर्या आदि आध्यात्मिक शस्त्र हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मत्सर आदि पाणविक शस्त्र है । आध्यात्मिक शस्त्र शक्तिमैया ( माता) के आयुध हैं और पाशविक शस्त्र पाशविक गक्ति के आयुध हैं । तुम प्राध्यात्मिक शस्त्र हाथ में लेकर जीवन-सग्राम मे कर्म-शत्रुनो के साथ युद्ध खेलो और उन्हें परारत करो । इसमे कल्याण है । जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण गरीर नाशवान है और
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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