SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४-सम्यक्त्वपराक्रम (४) कहने का आशय यह है कि अन्य वस्तुओं की तरह कर्म का भी उपक्रम हो सकता है। अगर कर्म का उपक्रम न होता तो कोई मोक्ष में ही नही पहुच सकता । कर्म नष्ट किये जा सकते हैं और इसलिए भगवान् ने कहा है -चौदहवें गुणस्थान मे पहुचकर अात्मा अशरीर बन कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। कुछ लोगो का कहना है कि सिद्ध होने के बाद आत्मा शून्यरूप हो जाता है । अर्थात् सिद्ध होने के पश्चात् आत्मा सिद्धगति मे शून्य सरीखा हो जाता है। परन्तु यह बात भ्रमपूर्ण है। सिद्ध होने पर आत्मा पूर्णज्ञानी बन जाता है, और इन्द्रिय तथा शरीर न होने पर भी वह सिद्ध होकर रहता है। सिद्ध का स्वरूप कैसा होता है; यह बात श्रीआचारांगसूत्र मे कही है: से न दोहे, न हस्से, न वट्ट, न तंसे, न चउरसे, न परिमडले, न कण्हे, न नीले,न लोहिए न हलिद्दे, न सुविकले, न सुरभिगधे, न दुरभिराधे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न लुक्खे, न काऊ, न रहे, न संगे, न इत्थे, न पुरिसे, न अन्नहा परिन सन्न । उवमा न विज्जइ। प्ररूवी सत्ता अपयस्य पयं नत्थि ॥ अर्थात्-आत्मा लम्बा नही, छोटा नही, गोल नही, तिकोना नही, चौकोर नहीं, मडलाकर नही, काला नही, नीला नही, लाल नहीं, पीला नही, सफेद नही, सुगधित नही, दुर्गधित नही, तिक्त नही, कटुक नही, कसैला नही, खट्टा नही, मीठा नही, कठोर नहीं, कोमल नही, भारी नही, हल्का नहीं, ठडा नही, गर्म नही, रूखा नही, चुपड़ा नही,
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy