SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सैतीसवां बोल-३५ मानव-जीवन अस्थिर है। आयु जल की हिलोर के समान चचल है । कवि ने ठीक कहा है कि - विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग आयुष्य ए तो जलना तरंग । पुरन्दरीचाप अनग रग, शु राचीए त्यां क्षणिक प्रसंग ॥ ____ जीवन की ऐसी अस्थिरता मे मनुष्य का अभिमान करना मूर्खता ही है । मनुष्य अभिमान करके बहुत बार अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करता है । मान लो किसी मेढक को साप ने पकड लिया है । मेढक का प्राधा मुख साप के मुख मे है और आघा बाहर है। फिर भी वह मेढक अपना मुह फाडकर मक्खियो का पकडना चाहता है। अगर तुम मेढक को ऐसा करते देखो तो उसे मूर्ख की पदवी देते देर नहीं करोगे । लेकिन तुम स्वय कराल काल-सर्प के मुह में फसे हो, फिर भी अभिमान करते हो । यह मूर्खता नही तो क्या है ? मनुष्य को विवेकज्ञान मिला है । वह सार-प्रसार, हित-अहित का विचार कर सकता है । अतएव तुम अपने विवेक का सदुपयोग करो । इसी मे कल्याण है ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy