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________________ सेंतीसवाँ बोल-३१ .. कर सकता है। तेरहवे गुणस्थान तक एकाग्रवृत्ति रहती है। पांचवीं निरुद्धावस्था या निरोधवृत्ति चौदहवें गुणस्थान मे पहुचने के बपद अरती है । यह वृत्ति थोडे समय तक ही रहती है । श्रीभगवतीसूत्र और उववाईसूत्र मे धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के नाम से गभीर विचार किया गया है । कहने का आशय यह है कि जब आत्मा अपने गुणों का विकास करके तेरहवें गुणस्थान से चौदहवे गुणस्थान मे पहुचता है, तब उस अवस्था में आत्मा यदि मन, वचन तथा काय के योग का त्याग कर दे तो आत्मा को क्या लाभ होता है । इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फर्माया- योग का त्याग करने से प्रात्मा अयोगी बनता है और अयोगी होने के बाद वह पुराने कर्मों का नाश करता है तथा नवीन कर्मों का बध नही करता इस प्रकार आत्मा जब अयोगी बनता है तब ईर्यापथिक क्रिया द्वारा 'लगने वाले कर्म भी बद हो जाते हैं और भवोपग्राही चार कर्म अर्थात आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म भी नष्ट हो जाते हैं । इन चार कर्मो के नष्ट होते ही आत्मा सिद्ध, वुद्ध तथा मुक्त हो जाता है। यह तो योगनिरोध अथवा योग का त्याग करने से होने वाले लाभ की बात हुई। मगर यह विचार करना आवश्यक है कि हमे करना क्या चाहिए? योग का निरोध करने की शक्ति न हो तो क्षिप्तवृत्ति, मूढवृत्ति तथा विक्षिप्तवृत्ति को तो दूर करने का क्रमशः प्रयत्न करना ही चाहिए ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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