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________________ ३३२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) किया--राजा का अभिमान दूर कर देना चाहिए और उसे सत्यमार्ग दिखलाना चाहिए। इस प्रकार विचार कर इन्द्र ने अपनी वैक्रिय लब्धि से एक ऐमा हाथो बनाकर उतारा कि उसके सामने राजा की सारी ऋद्धि फोको पड गई । राजा अभिमान के वश होकर विचारने लगा - इन्द्र ने मेरी ऋद्धि की तुच्छता दिखलाई है और एक प्रकार से मुझे पराजित किया है । ऐसी स्थिति मे मुझे क्या करना चाहिए ? मैं इन्द्र की होड नहीं कर सकता, क्योकि इन्द्र अपनी वैक्रिय लब्धि से इच्छानुसार ऋद्धि बना सकता है । तो फिर इन्द्र को जीतने के लिए क्या उराय करना चाहिए? यह ठीक है कि मैंने अभिमान किया सो उचित नही था, मगर अब पकडी हुई टेक किस प्रकार सिद्ध की जाये ? इन्द्र को जीतने का मेरे पास एक ही उपाय है - त्याग । त्याग __ के अतिरिक्त भौर किसी भी उपाय से वह पराजित नही हो सकता । इस प्रकार विचार कर दशाणभद्र राजा ने सर्वविरति सयम स्वीकार किया। अब वेचारा इन्द्र क्या करे ? उसने सोचा-प्रथम तो मैं दीक्षा ही नहीं ले सकता - ऐसा त्याग ही नहीं कर सकता । कदाचित् दोक्षा ले ल तो भो मुझ इन मुनि से लघु शिष्य ही वनना पडगा । प्रतएव श्रेयस्कर __ यही है कि इन मुनि से क्षमावाचना करके पवित्र हो ज ऊँ। इस प्रकार विचार कर इन्द्र ने मुनि को नमस्कार किया और कहा-'भगवन् की वन्दना करने के लिए आप सगरी तयागे वास्तव मे किमी ने नहीं की है और अब आपका त्याग भी यपूर्व है । आपके त्याग से मैं प्रभावित
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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