SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___३१२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) उसने राजा को धर्मतत्त्व समझाया । श्रावक को धर्म समझाने का अधिकार है, मगर जब वह स्वय ज्ञाता हो तभी दूसरों को समझा सकता है ! सुबुद्धि प्रधान से धर्मतत्त्व समझकर राजा बारह व्रतधारी श्रावक बना । धीरे-धीरे उसने आत्मकल्याण किया । कहने का आशय यह है कि धर्म का ज्ञाता व्यक्ति । तो यही मानता है कि इष्ट से अनिष्ट और भनिष्ट से इण्ट होना ही वस्तु का स्वरूप है। इस प्रकार वस्तु का स्वरूप समझ लेने पर मनुष्य इष्ट वस्तु पर राग और अनिष्ट वस्तु पर द्वेष धारण नहीं करता, वह समभाव ही रखता है । वह भलीभांति जानता है कि जो वस्तु थोडी देर के लिए इष्ट प्रतीत होती है और फिर अनिष्ट मालूम होने लगती है, उसके खातिर मैं अपने प्रात्मा में राग द्वेष क्यो उत्पन्न होने दूं ! वस्तु प्रात्मा का उत्थान भी करती है और पतन भी करती है। वस्तु के निमित्त से जब आत्मा में राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है तो ऐसी अवस्था मे आत्मा का पतन होता है और समभाव उत्पन्न होने से प्रात्मा का उत्थान होता है । जिस वस्तु के निमित्त से आत्मा का उत्थान हो सकता है. उसे आत्मपतन का कारण क्यो बनाया जाये ? इस प्रकार विचार कर इद्रियो का निग्रह करने वाला व्यक्ति अवश्य ही आत्मकल्याण का भागी होता है । सभी शास्त्रकार और सभी धर्मावलम्बी इद्रियो के । निग्रह की बात करते हैं । इस विषय मे प्राय. किसी का मतभेद नही है । सभी लोगो का कथन है कि इद्रियो का निग्रह करने से आत्मा का कल्याण हो सकता है । गीता मे भी कहा है-हे अर्जुन ! तुझे आत्मा का कल्याण करना
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy