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________________ ३००-सम्यक्त्वपराक्रम (५) तेरहवे गुणस्थान से चौदहा गुणस्थान प्राप्त करके अडोनअकप बन ज ता है। अर्थात मन, वचन तथा काय के योगो का निरोध करके अयोगी बन जाता है । अयोगो होने के वाद जीवात्मा केवली सम्बन्धी चार कर्मों को नष्ट करके पाच लघु अक्षरो के उच्चारण जितनो स्थिति भोगकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है । इस प्रकार वह जीव सब प्रकार के परिग्रह से मुक्त होकर समस्त दुःखो का अन्त करता है। साधारणतया पुरुष के लिए स्त्री का और स्त्री के लिए पुरुष का त्याग करना शील समझा जाता है । मगर शास्त्र कहते हैं कि शील मे समस्त संवर के गुणों का समावेश हो जाता है । सवरगुण में पाना ही शील कहलाता है । सब प्रकार से पूर्ण अहिंसक, सत्यवादी अस्तेयवती, ब्रह्मचारी तथा निष्परिग्रही होना ही सम्पूर्ण शील है। शोल के इन साधनो को कोई पूर्ण रूप मे स्वीकार करते हैं, कोई आशिक रूप मे । श्रीसूयगडागसूत्र में कहा है- जो व्यक्ति एक देश से भी शील के साधनो को स्वीकार करता है, वह भी मोक्ष का पथिक है। शील का सम्यक प्रकार से पालन करने वाला ही मोक्ष के मार्ग पर जा सकता है, अन्यथा नही । शीलवान बनने के लिए सर्वप्रथम हेय, ज्ञेय और उपादेय वस्तु का विवेक करने की आवश्यकता है । हेय, ज्ञेय तथा उपादेय वस्तु का विवेक करके शील का जितना हो सके, उतना पाल्न निष्कपटभाव से करना चाहिये । ससार का कोई भी बल चारित्र-बल का मुकाबला नही कर सकता । लोग धन-जन आदि के बल को बल मानते हैं, मगर शास्त्र का कथन है कि चारित्रवल की तुलना कोई बल नही कर सकता। चारित्रवल हो तो दूसरे
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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