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________________ उनसठवां बोल-२७६ जाता है और श्रुतज्ञान के प्रभाव से उस जीवात्मा को प्रत्यक्ष, ज्ञान-अवधि, मन पर्यय, केवल आदि ज्ञान-- भी प्राप्त होते हैं और विनय, तप तथा चारित्र की भी प्राप्ति होती है । इतना ही नहीं, वह श्रुतज्ञानी जीव स्वसमय (स्वसिद्धान्त) और परसमय (पर-सिद्धान्त) का ज्ञाता हो जाने के कारण विद्वानो के समागम मे भी आता है और उनका सशय निवारण करने में भी समर्थ होता है। यहाँ ज्ञान के विषय में जो प्रश्न किया गया है, उसका सम्बन्ध श्रुतज्ञान के साथ है, क्योक उद्देश, समुद्देश, आज्ञा और अनुज्ञा श्रुतज्ञान में ही होते हैं अर्थात् प्रारम्भ और समाप्ति श्रुतज्ञान की ही होती है । 'श्रुतज्ञान प्राप्त करो' ऐसा उपदेश श्रुतज्ञान के लिए ही दिया जाता है । मतिज्ञान मादि के लिए ऐसा उपदेश देने की आवश्यकता नहीं रहती। यहाँ ज्ञान का सामान्य रूप से कथन किया है, अतः पाँचो ज्ञानो का उसमे समावेश हो सकता है किन्तु वास्तव में इस प्रश्नोत्तर का सम्बन्ध श्रुतज्ञान के साथ ही है । इस बोल में यह प्रश्न पूछा गया है कि ज्ञान प्राप्त करने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है ? इस पर विशेष विचार करने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि ज्ञान का अर्थ क्या है ? शब्दशास्त्री ज्ञान की तीन प्रकार से व्याख्या करते है-भावप्रधानता से, कर्तृ प्रवानता से और करणप्रधानता से। 'ज्ञप्तिर्ज्ञानम्' अर्थात् वस्तु को जानना भावप्रधान ज्ञान है। "जानातीति ज्ञानम्' अर्थात् जो वस्तु को जानता है वह कर्तृ प्रधान ज्ञान है और 'ज्ञायतेऽनेन इति ज्ञानम्' अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु जानी जाये वह करणप्रधान ज्ञान है। इस
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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