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________________ १९० - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ ) f + 1 , वस्तु जिसे कार्य के लिए उपयुक्त हो उसका उसी में उपयोग " किया जाये। जिस कार्य का जो कारण होता है, उस कारण से वही कार्य सिद्ध हो सकता है अन्य नही ।' उससे अन्य कार्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना उस कारण का दुरुपयोग करना है | घडा बनाने के लिए मिट्टी ही लेनी पड़ती है प्रौर कपडा बनाने के लिए सूत काम में लाना पड़ता है । ऐसा न किया जाये और कपडा बनाने के लिए मिट्टी और घडा बनाने के लिए सूत काम मे लाया जाये तो कार्य सिद्धि नही हो सकती । इसी प्रकार जब आत्मा का कल्याण करने का कार्य करना हो तो आत्मकल्याण - साधक सरलता को अपनाना चाहिये और पुद्गलो के प्रति निस्पृह बनना चाहिए तथा कपट का त्याग करना चाहिए । इसके विपरीत अगर यह भावना रही कि मैं किस प्रकार सुन्दर दिखाई दू मैं वनिक कैसे बनू या ऐसी कोई और सासारिक भावना रही और उस भावना को पूर्ण करने के लिए कपट का आश्रय लिया गया तो ऐसा करने वाले को पुद्गलानदी भले ही कहा जाये मगर आत्मकल्याण - साधक नही कहा जा सकता । ऐसा श्रतिशयलोलुप जीव सम्यक्त्व भी प्राप्त नही कर सकता और श्रात्मा का कल्याण किस प्रकार कर सकेगा ? अतएव जिस कार्य के लिये जो कारण हो उस कार्य के लिए वही कारण अपनाना चाहिए । आत्मकल्याण साधने के लिए जिन कारणों की आवश्यकता है, वे कारण हम लोगो को शुभ - क्रिया के प्रताप से सौभाग्य से प्राप्त हैं । श्रतएव परमात्मा के साथ सबन्ध जोडने का जो साधन हमें प्राप्त है, उस साधन द्वारा आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । आत्मकल्याण का सरल मार्ग है- सरलता धारण करना — कपट का त्याग करना । } 1 I 61 ג
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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