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________________ मड़तालीसवां बोल - १८१ तुम्हारे हृदय में आ जाये तो समझना कि तुमने भगवान् के धर्म को समझा है । जैसे बालक कपटरहित होकर मातापिता के सामने सब वात खोलकर कह देता है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना समस्त व्यवहार निष्कपट होकर करता है, वही वास्तव मे घम की श्राराधना कर सकता है | सच्ची सरलता प्रकट हुए बिना धर्म की यथावत् आराधना नहीं हो सकती । > तुम लोग माया को जीतकर सरलता प्राप्त करने के लिए हमारे पास आते हो । अत्तएव हमें भी विचारना चाहिए कि हम दूसरो का रोग दूसरों की माया तभी दूर कर सकते हैं, जब हम स्वयं नीरोग हो अर्थात् मायारहित हो । अगर हम स्वयं रोगी अर्थात् वत्र हुए तो दूसरो का रोग किस प्रकार मिटा सकेंगे ? वास्तव में सरलता धारण किये बिना आत्मा का कल्याण भी नही हो सकता । अपने बुद्धिबल से या कपट से कोई दूसरो को पराजित भले ही कर सकें, मगर उससे आत्मा का कल्याण नही साधा जा सकता / 1 आत्मा का कल्याण तो सरलता से ही हो सकता है । । हृदय मे कपटभाव रखने वाला धर्म का आराधन नही कर सकता । धर्म की आराधना तो सरल श्रात्मा से ही होती है । वही अपना कल्याण कर सकता है । व्यवहार में भी सरलता की आवश्यकता रहती है । स्वामी भी सरल सेवक पर प्रसन्न रहता है । जो सेवक कपटी - होता है उसके प्रति स्वामी प्रेम प्रदर्शित नही करता । जब व्यवहार में भी यह बात देखी जाती है तो फिर खटपट मे पडा हुआ अर्थात् वक्र मनुष्य परमात्मा का प्यारा कैसे बन सकता है ? ठग लोग समझते हैं कि हम परमात्मा की आखों में धूल झोंक }
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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