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________________ १८०-सम्यक्त्वपराक्रम (४) मे सरलता होगी तो भावो में भी सरलता होगी और जिनके भावो में तथा काय में सरलता या वक्रता होगी. उनकी भाषा में भी वैसी ही सरलता या वक्रता पाए विना नही रहेगी। भाव मे भाषा में और काया में वक्रता किस प्रकार पाती है, इसका वर्णन शास्त्र मे भिन्न-भिन्न प्रकार से किया गया है । यद्यपि प्रधानता तो भाव की ही रहती है तथापि भाव के साथ भाषा और काया का भी सवध है। भाव को प्रधानता देहली पर रखे दीपक के समान है। देहली पर दीपक रखने से बाहर भी प्रकाश पड़ता है और भीतर भी प्रकाश पडता है, उसी प्रकार भाव मे सरलता या धक्रता रखने से भाषा और काया में भी सरलता तथा वक्रता आती है। ऋजुता अर्थात् सरलता से भाव में, भापा तथा काया मे सरलता आती है और जव इन तीनो मे सरलता प्राती है तव, भगवान् के कथनानुसार आत्मा में अविसवाद प्रकट होता है । आत्मा मे अविसवाद प्रकट होने से आगामी काल मे धर्म की आराधना की जा सकती है। वास्तव मे धर्म की आराधना अविसवाद से ही होती है। जो रोगी होता है और जो रोग दूर करना चाहता है वही औपध का सेवन करता है । जो अपना रोग शान्त ही नही करना चाहता वह किसलिए औषध सेवन करेगा,? इसी प्रकार अगर तुम अपनी वक्रता दूर करना चाहते हो तो भगवान् के इस सदुपदेश को हृदय में उतारो और अमल में लाने का प्रयत्न करो । अगर तुम अपनी वक्रता दूर ही नही करना चाहते तो इस दशा मे उपदेश सुनने से क्या लाभ हो सकता है ? बालक के हृदय, जैसी सरलता जव
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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