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________________ संतालीसा बोल-१७५ कपिल ब्राह्मण को सिर्फ दो माशा सोने की ही आव. श्यकता थी। राजा ने इच्छानुसार जो चाहिए सो-मांगने की अनुमति दी । कपिल ब्राह्मण ने बगीचा मे जाकर खूब विचार किया कि क्या मागना चाहिए ? किन्तु विचारतेविचारते वह इमी निर्णय पर आये कि लोभ का कही मन्त नही है । ज्योज्यों अविक मागने की इच्छा करता हूं, लोभ बढ़ता ही जाता है। वास्तव मे जहाँ लाभ है वहां लोभ है । तृष्णा सर्वविनाशिनी है । अगर मैं तृष्णा का त्याग कर दू तो निर्भय बन जाऊ ! इस प्रकार गहरा विचार करने के बाद कपिल ब्राह्मण इसी नतीजे पर पहचे कि लोभ ही सर्व विनाशक है,। अतएव लोभ का त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है। ऐसा विचार कर कपिल ब्राह्मण ने लोभ का त्याग कर दिया और लोभ का पूर्ण रूप से त्याग करने के लिए ससार का त्याग करके मुनिपद स्वीकार किया और आत्मकल्याण किया । भगवान् ने कहा है-लोभ पर विजय प्राप्त करने से आत्मकल्याण होता है । अतः आत्महितपी लोगो को लोभ पर विजय पाकर निर्लोभ बनकर आत्मकल्याण करना चाहिए। जीवन मे निर्लोभवृत्ति आ जाएगी तो धन आदि के लिए अर्थलोलुप लोगो से प्रार्थना भी नही करनी पडेगी । जहा निर्लोभता है वहा निर्भयता है । अतएव भयरहित बनने के लिए जीवन मे लोभ को त्याग दो। लोभ को जीतो । इसी मे स्व-पर का कल्याण है ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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