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________________ पैतीसवाँ बोल - 2 जाता है परन्तु विषयों की वासना नही मिटती । विषयों की जो वासना उपवास करने पर भी शेष रह जाती है, उस वासना का उच्छेद करने के लिए परमात्मा का शरण ग्रहण करना आवश्यक है । उपवास करने से विषय तो दूरा हो जाते हैं परन्तु विघ्नरूप जो वासना बाकी रह जाती है वह परमात्मा के शरण मे जाकर दूर की जा सकती है । तपश्चरण द्वारा विषयेच्छा भी समूल नष्ट की जा सकती है और इसीलिए बाह्य तथा आभ्यन्तर तपश्चरण किया जाता है । वाह्य तपश्चरण से विषय निवृत्त हो जाते हैं और आभ्यन्तर तप द्वारा अर्थात परमात्मा का शरण ग्रहण करने से विषयो की वासना भी मिट जाती है और चित्त की शुद्धि भी हो जाती है । आज के लोग दवा के ऐसे अभ्यासी बन गए हैं कि दवा के नाम पर वे अखाद्य और असेव्य पदार्थ भी खा जाते और सेवन करते हैं । इस प्रकार की भ्रष्ट दवा से बचने के लिए तथा अन्त:करण को शुद्ध करने के लिए उपवास करना शारीरिक और आत्मिक विकास की दृष्टि मे अत्यावश्यक है | तपश्चरण करने वाला भ्रष्ट दवा के सेवन से बच सकता है और अपने अन्तःकरण को भी शुद्ध कर सकता है । कोई-कोई लोग उपवास के नाम पर खान पान में ही मशगूल रहते हैं । कन उपवास करना है, ऐसा विचार करके कुछ लोग हलुवा आदि गरिष्ठ पदार्थों से पहले ही पेट भर लेते हैं । जैनशास्त्रो का कथन है कि उपवान की यह विधि नही है । धारणा और पारणा के दिन एक ही बार भोजन करने से चतुर्थभक्त उपवास होता है । अर्थात् धारणा के
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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