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________________ छयालीसवां बोल - १६३ का वध किया और उनके शरीर की खाल उतार ली । परन्तु वह शान्तमूर्ति मुनिराज परमात्मा के ध्यान से तनिक भी विचलित नही हुए । शरीरनाश के समय उन्होने अपनी आत्मा का परमात्मा के साथ ऐसा अनुसंधान किया कि परमात्मा का ध्यान करते हुए उन्हें मृत्यु का दुःख मालूम ही नही हुआ । मुनि के मन मे किसी के प्रति न क्रोधभाव उत्पन्न हुआ और न वैरभाव ही उत्पन्न हुन । उस समय खधक मुनि क्षमा की साक्षात् मूर्ति बन गये । क्षमाशीलता का इससे ऊचा आदर्श और क्या हो सकता है ? क्षमाशील रहना तो साधु का धर्म है । समर्थ साधु ही ऐसा वघपरिषह सह सकते हैं । क्षमाशील साधु कैसे होते हैं, इस सबंध मे शास्त्र मे कहा है.. हो न संजले भिक्खु, मण पि न पत्रोसए । तितिक्खं परम नच्चा, भिक्ख धम्म समायरे ॥ अर्थात् - कोई प्राणो का हरण करे तो भी भिक्षु उस पर क्रोध न करे, यहां तक कि मन मे भी द्वेष न लावे | बल्कि तितिक्षा ( सहनशीलता - क्षमा) को उत्तम गुण समझकर क्षमाशील साधु क्षमाधर्म का ही पालन करे । खधकजी मुनि ने दस प्रकार के साधु धर्मों मे प्रथम और प्रधान क्षमाधर्म को सर्वोत्कृष्ट समझकर प्राण अर्पण कर दिये और जगत् के समक्ष क्षमा का अनूठा आदर्श उपस्थित करने के साथ अपने जीवन को धन्य बना लिया । खधकजी मुनि ने प्राण त्याग करते समय ऐसी उच्च भावना भायी थी कि: - चाहत जीव सर्व जग जीवन, देह समान नहीं कछु प्यारो । सयमवंत मुनीश्वर को, उपसर्ग हुए तन नाशन हारो ॥
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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