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________________ १५२-सम्यक्त्वपराक्रम (४) . अर्थात-पात्मा ही वास्तव मे दमन करने योग्य है, क्योकि आत्मा दुर्दम है । जो दुर्दम आत्मा का दमन करते है वे इस लोक मे भी सुखी होते हैं और परलोक मे भी। - इस प्रकार शास्त्रकारो ने जितात्मा बनने और आत्मविजय प्राप्त करने की ही प्रशसा की है। आत्मविजय में ही समस्त विजयो का समावेश हो जाता है। प्रात्मविजयी जितात्मा लाखो योद्धाओ को जीतने वाले योद्धा की अपेक्षा अधिक विजयी गिना जाता है । जितात्मा की ही सर्वत्र पूजा होती है और इसी कारण सम्राट की अपेक्षा परिवाट की पदवी ॐ ची मानी गई है। सुभट की अपेक्षा साधु और सम्राट की अपेक्षा परिब्राट् इसीलिए वदनीय और पूजनीय है कि एक तो क्षेत्र विजय प्राप्त करता है और दूसरा क्षेत्री पर जयलाभ करता है। क्षेत्र या शरीर पर प्रभुत्व जमा लेना कोई बड़ी बात नही है । परन्तु क्षेत्री अर्थात आत्मा पर विजय पा लेना अत्यन्त ही कठिन है । __ इस प्रकार सुभटों पर विजय पाना सरल है । मगर काम-क्रोध आदि को जीतमा बडा ही कठिन कार्य है । कहा जाता है कि लक्ष्मण ने रावण को पराजित किया था, परन्तु वास्तव में रावण किससे पराजित हुआ ? रावण लक्ष्मण से नही वरन् काम से पराजित हुआ था। रावण ने सब को जीत लिया था मगर काम को वह नहीं जीत सका था और 'इसी कारण उसकी पराजय हुई। इस प्रकार सुभटो को जीतना वहुत कठिन नही है किन्तु काम को जीतना अत्यन्त कठिन है। जिस काम ने रावण जैसे वलिष्ठ पृथ्वीपति को पराजित कर दिया, उस काम को, जीत लेना हँसी-खेल नही
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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