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________________ ।। पंतालीसवाँ बोल-१३५ महाजन का निर्दिष्ट मार्ग है। यह तो तिलक और भाण्डारकर के वाद-विवाद की बात हुई । परन्तु मेरी दृष्टि से अठारह दोषो से रहित वीतराग का मार्ग ही महाजन का मार्ग है । हम लोग ऐसे वीतराग महापुरुष को हो महाजन और उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग को ही महाजन का मार्ग कहते हैं । वीतराग के मार्ग पर चलने वाले का सदा कल्याण ही हुआ है । कभी अक. -ल्याण नही हुआ। शास्त्रकारो का कथन है कि इन्द्रियो के विषय - शव्द, रूप, रस, गंध, स्वश - चाहे भले हो या बुरे हो, उनके प्रति समभाव रहना चाहिए, विषमभाव नही । ऐसा होने पर समझना चाहिए कि वीतरागभाव आ गया है । समभाव का अर्थ यह नहीं है कि अमत को विष और विप को अमृत मानला चाहिए और ऐसा मानकर उन्हे खा जाना चाहिए । परन्तु समभाव का अर्थ यह है कि चाहे अमृत हो चाहे विष हो पर दोनो के प्रति समभाव रखना चाहिए । समभाव रखने से विप भी अमृत और आग भी शीतल हो जातो है । सीता मे समभाव होने के कारण ही अग्नि उसके लिए शीतल बन गई थी। मीरा के समभाव ने विष को भी अमृत के रूप में परिणत कर लिया था । इसी प्रकार तुम समभाव रखो और भक्तो की भाति परमात्मा मे प्राथना करो - . परुष वचन अति कठिन श्रवण सुनि, तेहि पावक न दहोगो, विगत मान सम शीतल मन पर, गुण अवगुण न गहोंगो । अर्थात् - चाहे जैसे कठोर और कर्णकटु शब्द सुनाई
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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