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________________ ४-सम्यक्त्वपराक्रम (४) पूरे कर दिये हो और वह कृतकृत्य हो गया हो । एमाही भी नहीं सकता । प्रत्येक जीव को यही तृष्णा लगी रहती है कि मैने अमुक-अमुक काम तो कर लिए है मगर अब अमुक काग करने शेप हैं ! इस ताणा का पूर्ति कमी होती ही नहीं । उदाहरणाथ - कठ के बाभूपण तैयार हए कि हाथ के या भूपणो की बात चलने लगती है और हाथ के आभूपण भी कदाचित् तैयार हो गए तो पैरो के गहने तैयार करने की इच्छा हो जाती है । इसी प्रकार चादी के आभूपण हो तो सोने के और सोने के हो तो हीरा-माणिक के जेवर गढवाने की लालसा बढ़ती ही जाती है । इस तरह ससार मे तृष्णा का कही अन्न नहीं भाता, वह नो उत्तरोतर बढती ही जाती है। परन्तु जब आत्मा में शरीरश्रात्मा का भेदविज्ञान प्रकट होता है, तब अ त्मा इन सत्र यस्तुओ का त्याग कर देता है और तृष्णा को जीतकर सतोपामृत का पान करता है । यात्मा जव सतुष्ट बनती है तभी उसे शाति का अनुभव होता है, अन्यथा यह आत्मा तष्णा नदी में बता और गोते खाता हुमा दुःख उठाता है । पर भेदज्ञानी आत्मा मसार की बहुमूल्य समझी जाने वाली वस्तुओं को भी तुच्छ समझकर उनका त्याग कर देता है। पुरोहित-पुत्र कहते हैं-~-पिताजी, इस प्रकार सासारिक कायं तो बहुत हैं और उन कार्यों के लिए हाय-हाय भी बहुत करनी पड़ती है । परन्तु जिसके याघार पर यह सब काम किये जाते हैं वह आयुज्य भी प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है । जब आयुष्य ही क्षीण हो जाता है तो सासारिक कार्य पूर्ण किस प्रकार होंगे ? कोई नहीं जानता, आयु कब पूर्ण
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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