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________________ पैतीसवां बोल-३ जब शरीर श्रात्मा से भिन्न है, इस प्रकार का भेदज्ञान होता है और जब वैराग्य की उत्पत्ति होती है, तब शारीरिक परतन्त्रता दूर करने के लिए और आत्मा को शरीर-बधन से मुक्त करने के लिए धर्मात्मा पुरुप आहार का त्याग करते हैं । आहार के इस त्याग से जीव को क्या' लाभ होता है, यही प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान महावीर स्वामी से किया है । आहार का त्याग करना सरल नहीं है । शरीर-प्रात्मा का भेदज्ञान, स्व-पर की पहिचान तथा उत्कृष्ट वैराग्य जब उत्पन्न होता है, तभी आहार का त्याग किया जा सकता है । इस प्रकार आहार का त्याग करने वाला जीवन की आशा ही त्याग देता है । जीवन की प्राशा त्याग देने से होने वाला लाभ, शास्त्र मे आये हर एक कथन का उल्लेख करके समझाना हू । भृगु पुरोहित के दोनो पुत्रो ने अपने पिता को जीव को स्थिति बतलाते हुए कहा था - इमं च मे अस्थि इम च नत्थि, इम च मे किच्चमिम अकिच्चं। त एथमेवं लालप्पमाण, हारा हरंति इति कहं पमाए । यह मेरा है, यह मेरा नही है, यह काम मुझे करना है, यह काम मुझे नही करना है, इस प्रकार की घटना ससार मे दिन-रात चलती रहती है। जीवन छोटा और काम बहुत हैं । ऐसी स्थिति में कोई भी पुरुप अपनी इच्छा के अनुसार अपना काम पूरा नहीं कर सकता । आज दिन तक ऐसा नही हुआ कि किसी ने ससार के सब काम
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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