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________________ ' १२२ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ ) भी तुम्हें सेवाधर्म से विचलित नहीं कर सकता । क्योंकि उस समय तुम्हारे प्रन्तर में सच्ची सेवाभावना जागृत हुई होगी और जिसमे सच्ची सेवा भावना जागृत हो जाती है उसे कोई भी देव चलायमान नही कर सकता, जैसे नदिसेन मुनि को देव चलायमान नही कर सका था । सेवा करना भी तप है । वैयावृत्य-सेवा की गणना आभ्यन्तर तप में की गई है । बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप से श्रात्मा की अधिक शुद्धि होती है । महावीर भगवान् ने तप की खूब महिमा बतलाई है । तपश्चरण द्वारा अवश्य ही ग्रात्मकल्याण होता है। आत्मा के कल्याण का तप प्रमोल साधन है । जो पुरुष तपोमार्ग को अपना कर अपनी श्रीर जगत् की सेवा करता है, वह स्व-पर का कल्याण- साधन करता है । सेवा आत्मा और परमात्मा के बीच सवय स्थापित करने वाली साकल है । इस सांकल के द्वारा आत्मा और परमात्मा के बीच संबध जोडोगे तो कल्याण होगा ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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