SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेतालीसवाँ बोल-१२१ बत है और न सुनने पर भी आफत है। इन सब बातों के कारण ही यह कहा गया है कि सेवाधर्म योगियो के लिए भी अगम्य है। सेवाकार्य करना बहुत कठिन है। महान् कार्य का फन महान ही होता है। सच्चो सेवा करने से तीर्थर पद की प्राप्ति होती है। तीर्थङ्कर पद प्राप्त होना ही सेवा का महान से महान् फल है । जिस व्यक्ति पर सेवा का जितना भार है वह अपनी शक्ति के अनुसार जितनी ज्यादा सेवा करता है, वह उतने ही परिमाण मे बडा सेवक है । राजा-महाराजा भी एक प्रकार से प्रजा के सेवक ही हैं, क्योकि उनके ऊपर प्रजा की सेवा करने का भार है । प्रजा की सेवा करना राजा-महाराजा का धम है कसंध्य है । जो राजा या महाराजा कुशलतापूर्वक प्रजा की सेवा करता है वह प्रजा का महान् सेवक है। लोग उन्ही की प्रशसा करते हैं जो अधिक से अधिक सेवा बजाते हैं। जिस प्रकार प्रजा की सेवा करना राजा का कर्तव्य है उसी प्रकार गजा की सेवा करना प्रजा का कर्तच्य है । राज्य के नीति-नियमो का भनीभात्ति पालन करना, यही राजा की सेवा करना है । तुम लोग जब न्याय-नीति का बराबर पालन करो, पर-धन को धूल समान और पर. स्त्री को माता के समान मानो, तभी यह कहा जा सकता है कि तुम राजा की सेवा करते हो। परधन को धूल समान और परस्त्री को माता समान मानने को नीति अगर अपने जीवन मे अमल में लाओगे तो जनसमाज की और अपनी खुद की भी सेवा कर सकोगे और साथ ही साथ आत्मकल्याण भी साध सकोगे । अगर तुममे परधन को लूटने की और परस्त्री पर कुदृष्टि डालने की भावना न हो तो देव
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy