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________________ १७४ सम्यक्त्वपराक्रम (३) में पापकर्मों का आगमन नही होने देता। .. विषयलालसा से ही प्रत्येक पाप की उत्पत्ति होती है। जिसमे विषयलालसा नही होती वह पापकर्म भी नहीं करता। अतएव विषयवासना से हटना पापकर्मों से हटने के समान है। पाप से दूर होने वाले जीवात्मा दो प्रकार के होते हैंएक सिद्ध होते हैं और दूसरे स धक होते है अर्थात् एक तो वे हैं जो विपयवासना : से विमुख होकर पापरहित हो चुके हैं और दूसरे वे हैं जो विषयगसना से विमुख होकर पापरहित होने का प्रयत्न करते है। जो सिद्ध हो चुके है उनकी यहाँ चर्चा ही नही है क्योकि सिद्ध के लिए किसी प्रकार के उपदेश की आवश्यकता नही रहती। उपदेश तो साधक के लिए ही दिया जाता है । साधक को उन्मार्ग की ओर जाने से बचाने के लिए उपदेश दिया जाता है । साधको को यहाँ उपदेश दिया गया है कि अगर तुम पाप-से बचना चाहते हो तो विषयवासना का त्याग करो। - पाप सवको बुरा लगता है । कोई मनुष्य पापी कहलाना पसन्द नही करता । किसी को पापी कहा जाये तो वह नाराज हो जाता है। इस प्रकार कोई पापी नही बनना चाहता । परन्तु शास्त्र, का, कथन है कि वास्तव मे पापी न बनना हो तो विषयवासना का त्याग करो । जो पुरुष विषयवासना का त्याग न करके भी अपने को- निष्पाप कहलवाना चाहता है, वह चोरी करता है, भीतर और कुछ रखना और बाहर और कुछ दिखलाना यह चोरी है । इस प्रकार की चोरी न करते. हुए. विषयवासना से विमुख होने का प्रयत्न करना चाहिए ।
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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