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________________ एकतीसा बोल-१६७ कर्म का बन्ध चार प्रकार का है। इनमें से तीन प्रकार से बन्धे हुए की पूरी तरह निर्जरा होती है । निकाचित कर्म की निर्जरा तो होती है किन्तु उसमे स्थिति और रसघात होता है । जैसे पहले जमाने में सुई बनाने मे विलम्ब लगता था, मगर अब विज्ञान की वृद्धि हो जाने के कारण विलम्ब नही लगता । इसी प्रकार निकाचित कर्म भोगने तो पडते हैं मगर थोडे समय मे उनका भोग हो जाता है । निकाचित कर्म स्थिति और रस से तो कम किये जा सकते है, परन्तु प्रकृति और प्रदेश से कम नहीं हो साते । इस प्रकार कर्मों की निर्जरा का होना भी सत्य है और भोगे बिना छुटकारा न होना भी सत्य है । शास्त्र का कथन सापेक्ष है और सापेक्ष दृष्टि मे दोनो बाते सत्य है। कर्म भोगने पड़ते हैं, यह सुनकर किसी को घबराजाने की जरूरत नहीं है । कर्मों को भोगना अर्थात् पाप का नाश करना । अतएव कर्मों को भोग कर पाप से मुक्त होने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए । हा, ऐसा नही होना चाहिए कि पहले तो प पकारी प्रवृत्ति की जाये और फिर उसका प्रायश्चित्त किया जाये । यह तो वैसी चेष्टा है कि पहले तो चोर को घर मे जानबूझ कर धुसने दिया जाये और फिर बाहर निकालने का प्रयास किया जाये। जानबूझ कर अपने घर में चोर को घुसने देना मूर्खता है । लोग घर मे चोर न घुसने देने के लिए सावधानी रखते हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऐसी सावधानी रखनी पडती है कि पापकार्य न होने पावे । सावधानी रखने पर भी अगर पापकार्य हो जाये तो उसका प्रायश्चित्त करके ऐसा
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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