SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) कर्मरेख नहीं मिटे करो कोई लाखो चतुराई । इस प्रकार एक ओर तो यह कहा जाता है कि कृत. कर्म भोगने ही पडते है और दूसरी ओर यह कहा जाता है कि कर्मों की निर्जरा भी हो जाती है । इस प्रकार परस्पर विरोधी दो बाते सुनने से सदेह उत्पन्न होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है । परन्तु यह विपय अगर भलीभांति समझ लिया जाये तो सशय को कोई स्थान नहीं रह जाता । शा त्र मे स्पर्शबन्ध, बद्धबन्ध, निधत्तवन्ध और निकाचितबन्ध के भेद से कर्मों का बन्ध चार प्रकार का बतलाया गया है। पहला स्पर्शवन्ध सुइयो के ढेर के समान हाता है। सुइयो का ढेर करने मे कुछ देर लगती है पर बिखरने में देर नहीं लगती, क्योकि सुइयो का आपस मे स्पर्शमात्र हुआ है - बन्ध नही हुआ । दूसरा बद्धबन्ध है । बन्ध तो होता है मगर निर्जरा होने मे देर नही लगती । अर्थात् सुइयो के उस ढेर को डोरे से बाँध दिया जाता है मगर वह डोरा सरलता से हटाया जा सकता है, और सुइयो का ढेर' फिर जल्दी से बिखर जाता है । इस प्रकार का बन्ध बद्धबन्ध कहलाता है , तीसरा निधत्तबन्ध है । यह बन्ध कुछ मजबूत होता है जैसे उसी सुइयो के ढेर को लोहे के तार से मजबूत बाध दिया जाये । ऐसा करने पर सुइयाँ उस ढेर से निकल सकती हैं और लोहे का तार भी छूट सकता है । अलबत्ता लोहे का तार छुटाने मे कुछ कठिनाई अवश्य होती है। चौथा निकाचितवन्ध है । यह बन्ध- बहुत गाढ होता है । जैसे सुइयो का ढेर आग मे तपा लिया- जावे और घन से पीट-पीट कर उन्हे एकमेक कर दिया जाये । इस प्रकार
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy