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________________ पांचवां बोल-२१ माया अत्यन्त निकृष्ट है । माया पापमयी राक्षसी है । अगर तुम इसे जीतना चाहते हो तो सादगी अपनाओ। स दगी अपनाने से तुम्हारा आत्मा भी पवित्र बनेगा और दूसरो का भो कल्याण होगा। जो माया का गुलाम नही है, वह पापात्मा के सामने हृदय खोलकर अपने अपराध पेश कर देता है । वह सच्ची अलोचना करता है । बहिने घर झाडते समय घर की वस्तुए बाहर नही फैक देती, सिर्फ कचरा फेकती है। इसी प्रकार पर्युषणपर्व मे हृदय के कचरे-माया को बाहर निकालकर फैक दो । बहुतेरे लोग हृदय के मैल- माया को तो सभाल रखते है और सद्गुणरूपी वस्तुएँ फैक देते है। यह पद्धति खोटी है । इसे त्यागो। जान-बूझकर कोई घर में कचरा नही लाता, प्राकृतिक रूप से कचरा घर मे आजाता है। महीना दो महीना निरन्तर बन्द रहने वाले मकान में भी कचरा घुस जाता है । इसी प्रकार मानवीय प्रकृति के कारण भले ही हृदय मे माया आ गई हो, मगर उसे सभाल कर मत रखो-निकाल बाहर करो। जब हृदय में से माया निकाल फैकने की तमन्ना पैदा होगी तब थोडीसी माया भी अधिक मालूम होगी, ठीक उसी प्रकार जैसे कचरा फेकने की तमन्ना रखने वाली स्त्री को थोड़ा भी कचरा अधिक जान पडता है । इसी भाव को प्रकट करते हुए एक भक्त कहता माधव ! मो सम मन्द न कोऊ । यद्यपि मीन पतग हीनमति, मोहिं न पूजे ओऊ। महामोह-सरिता अपार मे, सन्तत फिरत बह्यो। श्रीगुरु चरण-शरण नौका तजि, पुनि-पुनि फैन गह्यो ,,
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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