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________________ 1 पांचवां बोल-६ प्रकार गुरु के समक्ष आलोचना करके सब बाते-सरलतापूर्वक, साफ-साफ कह देनी चाहिए। आलोचना करने में किसी प्रकार का क्लेश नही होना चाहिए । कपट करके दूसरे की आँखों मे धल झोकी जा सकती है, परन्तु क्या परमात्मा को भी धोखा दिया जा सकता है ? नही । परमात्मा को धोखा देने की असफल चेष्टा करना अपने आप को कष्ट मे डालने के समान है । अत आलोचना मे सरलता और निष्कपटता. रखना आवश्यक है । शास्त्र मे भी कहा है - - माई मिच्छदिट्ठी, अमाई सम्मदिट्टी। अर्थात्- जहाँ कपट है वहाँ मिथ्यात्व है और जहां: सरलता है वहाँ सम्यग्दर्शन है। लोग सम्यग्दर्शन चाहते हैं. मगर सरलता से दूर रहना चाहते हैं। यह तो वही बात हुई कि 'रोपा-पेड बवूल का आम कहा से होय ।' एक भक्त ने कहा है - , मन को मतो एक ही भांति । चोहत मुनि मन अगम सुकृत फल मनसा अथ न अघाति।। अर्थात् - सभी का मन उत्तम फल की आशा रखता है । जिस उत्तम फल की कल्पना साधु भी नही कर सकते, वैसा उत्तम फल तो चाहिए मगर कार्य वैसा नही चाहिए.), तीर्थंकर गोत्र का बध होना, शास्त्र मे बड़े से बड़ा फल माना गया है । अगर कोई कहे कि यह फल आपको मिलेगा तो क्या आपको प्रसन्नता नही होगी?, मगर क्या यह फल बाजार मे बिकता है जो खरीद कर ल या जा सके ? मन तो पाप से बचता नही है, फिर इतना महान् फल कैसे मिल सकता है ? अतएव महान् फल की प्राप्ति के लिए हृदय मे सरलता वारण करो और अपने अपराधो को गुरु के समक्ष सरलता:
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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