SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ -- सम्यक्त्वपराक्रम (२) चना है, परन्तु दुष्कृत प्रकट करने में किस प्रकार की मर्यादा रखनी चाहिए ? इस शका के उत्तर में कहा गया है कि आलोचना करने में सरलता होनी चाहिए । अर्थात् जो बात, जिस रूप मे हुई हो, वह उसी रूप मे प्रकट कर देनी चाहिए । उसमें किसी प्रकार का अन्तर - न्यूनाधिकता और कपट नही होना चाहिए। वही आलोचना सच्ची और शुद्ध है, जो निष्कपट भाव से की गई हो । श्री निशीथसूत्र मे कहा है → अपलिचियँ श्रालोएज्जा, मासियं पलिवुंचिय श्रालोएमाणे विमासियं । अर्थात् - जिस अपराध का दण्ड एक मास है, उस अपराध की आलोचना अगर निष्कपट भाव से की जाये तो एक ही मास का दण्ड आता है, अगर आलोचना करने मे कपट किया गया तो दो मास का दण्ड आता है । अर्थात् एक मास का दण्ड उस अपराध का और एक मास का दण्ड कपट का होता है । अतएव आलोचना करने मे सरल और निष्कपट रहने की मर्यादा का पालन करना चाहिए । ससार मे विषमता दिखाई देती है, उसका कारण कपट भी है । इस प्रकार कपट विषमता का कारण है, फिर भी लोगो ने उसे जीवन का एक आवश्यक अंग मान लिया है । लोगो मे यह समझ फैल गई है कि कपट किये बिना जीवन - व्यवहार चल ही नही सकता । इतना ही नही, निष्कपट को भोला समझा जाता है और जो कपट करने की अनेक चाले जानता है, वह होशियार माना जाता है । मगर शास्त्र कहता है-कपट महान् पाप है । जो दूसरो को ठगने का प्रयत्न करता है, वह अपनी आत्मा को ही
SR No.010463
Book TitleSamyaktva Parakram 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages307
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy