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________________ ६८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) प्रकार अजीव में भी जीव का आरोप किया जाता है । उदाहरणार्थ कुछ लोगो का कहना है कि आत्मा एक ही है और जैसे पानी से भरे हजारों घडो में एक ही चन्द्रमा दिखाई देता है, उसी प्रकार यह एक ही आत्मा सब में व्याप्त है । मगर यह कथन भ्रमपूर्ण है। यहाँ उदाहरण में बतलाया गया है कि एक ही चन्द्रमा हजारो घडो मे दिखाई देता है, यह तो ठीक है, किन्तु चन्द्रमा पूर्णिमा का होगा तो सभी घड़ों मे पूर्णिमा का ही चन्द्र दिखाई देगा और अष्टमी का होगा तो अष्टमी का ही सब में दिखाई देगा। अगर एक ही आत्मा चन्द्रमा की तरह सव शरीरो मे व्याप्त होती ती जो विविधता दिखाई देती है, वह दिखाई न देती। कोई वृद्धिमान दिखाई देता है, कोई वुद्धिहीन । कोई दुखी हैं, कोई सुखी है, अगर एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त होती तो यह विविधता क्यो दिखाई देती ? इस प्रकार वस्तु की ठीक तरह परीक्षा करने से विपरोतता- भ्राति मिट जाती है और विपरीतता मिटते ही सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है ।। यह इस अध्ययन के नाम के एक भाग का विवेचन हआ । अव यह विचार करना है कि-यह सुनकर करना क्या चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि सम्यक्त्व के लिए पराक्रम करना चाहिए । साधारणतया सभी लोग ऐसा मानते हैं कि निश्चय में सभी का आत्मा समान है परन्तु व्यवहार करते समय मानो यह बात भुला ही दी जाती है । 'मित्ती मे सव्वभूएसु' अर्थात् समस्त प्राणियो पर मेरा मैत्रीभाव है, इस प्रकार का पाठ तो वोला जाता है, मगर जव कोई गरीब, दुखी या भिखारी
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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