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________________ अध्ययन का प्रारम्भ-५६ आराधना के फलस्वरूप तीर्थकर पद की प्राप्ति के साथसाथ स्वत. प्राप्त हुई चीजें है, जो भगवान् के साथ रहती हैं और उन्हे अनुकूलता प्रदान करती हैं । ऐसी स्थिति में इन चीजो के कारण भगवान् को दोष नहीं लगाया जा सकता । मान लीजिये, एक मनुष्य कही जाने के लिए घर से निकला । जब वह घर से निकला तो सख्त गर्मी थी। धूप भी वहुत थी । वह थोडी दूर गया कि अचानक बादल चढ आया और धूप के बदले छाया हो गई तथा ठडी हवा बहने लगी । इस स्थिति मे उस मनुष्य के लिए क्या कहा जायेगा ? यही कि यह मनुष्य वास्तव मे पुण्यशाली है । वह स्वय नही जानता था कि धूप के बदले छाया हो जायेगी। लेकिन प्रकृति की कृपा से वह धूप से बच गया । इसी प्रकार यद्यपि भगवान् नही चाहते कि मुझे छत्र-चामर आदि चीजें प्राप्त हो फिर भी पूर्वभव मे की हुई बीस बोलो की आराधना से उन्हे अष्ट महाप्रातिहार्य प्राप्त हो जाते हैं। कहने का आशय यह है कि जो समग्न 'श्री' अर्थात लक्ष्मी का स्वामी हो वही भगवान् है । भगवान् महावीर समग्र 'श्री' के स्वामी थे। समाधिभाव-क्षमाभाव धारण करने से (१८) अपूर्व ज्ञानाभ्यास करने से (१६) बहुमान पूर्वक जिनेन्द्र भगवान के वचनो पर श्रद्धा रखने से और (२०) जिनशासन की प्रभावना करने से । इन बीस सत्कर्मों में से किसी एक अथवा समग्र सत्कर्मो का विशिष्ट रूप से सेवन करने वाला पुरुष तीर्थङ्कर गोत्र का फल प्राप्त करता है । वह वीच मे देवलोक या नरक का एक भव करके तीसरे भव मे तीर्थङ्कर होता है।
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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