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________________ ४६ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) भी है । मोह के प्रताप से ऐसा होता है कि जो बात अपने लिए देखी सोची जाती है, वही बात दूसरो के लिए नही सोची जाती । तुम्हे तो नोट बचाने वाला अच्छा लगता है, परन्तु तुम स्वय क्या करते हो, यह भी तो देखो। हम साधु तुमसे यही कहते है कि तुम भी पराया धन मत लूटो और दूसरे के अधिकार की चीज पर जबरदस्ती अपना अधिकार मत जमाओ । 1 कहा जा सकता है कि गृहस्थो को तो पैसे का बल चाहिए ही । कदाचित् यह बात सत्य हो तो भी हमेशा ध्यान में रखो कि पैसा तुम्हारा हो और तुम पैसे के हो रहो, यह दोनो बाते अलग-अलग हैं । पैसे को अपने अधीन रखना एक बात है और स्वयं पैसे के अधीन हो जाना दूसरी बात है । अपने विषय मे विचार करो कि पैसा तुम्हारे अधीन है या तुम पैसे के अधीन हो ? अगर तुम पैसे के अधीन न होओगे और पैसा तुम्हारे अधीन होगा तो तुम पैसे से सत्कार्य किये बिना रह ही नही सकते । अतएव गृहस्थो के लिए अगर पैसे का बल आवश्यक ही समझा जाता हो तो भी इतना अवश्य खयाल रखो कि तुम स्वये पैसे के अधीन न वन जाओ । पैसे के कारण अभिमान धारण न करो । गाँठ मे पैसा हो तो विचार करो कि मैने न्याय-नीति और प्रामाणिकता से यह धन उपार्जन किया है, अतः इसका उपयोग किसी सत्कार्य मे हो जाये तभी मेरा धनोपार्जन करना सार्थक है | आपके मन मे ऐसा विचार आए तो अच्छा है । इसके विपरीत कदाचित् आप यह विचार करने लगे कि
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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