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________________ सम्यक्त्वपराक्रम-३७ अर्थहीन नाम भी पाये जाते हैं । इस आधार पर नाम के विषय में इस प्रकार चौभगी बन जाती है : (१) नाम सुन्दर हो मगर गुण सुन्दर न हो । (२) गुण सुन्दर हो पर नाम सुन्दर न हो। (३) नाम भी सुन्दर हो और गुण भी सुन्दर हो । (४) नाम भी मुन्दर न हो और गुण भी सुन्दर न हो। यह अध्ययन तीसरे भग में गर्भित होता है । इस अध्ययन का नाम भी सुन्दर है और गुण भी सुन्दर है। इसका नाम गुणनिष्पन्न है । सम्यक्त्वपराक्रम और वीतरागसूत्र, यह दोनो नाम भी अप्रमत्त अध्ययन नाम के समान ही गुणनिष्पिन्न हैं । क्योकि अप्रमत्तता से ही सम्यक्त्वपराक्रम होता है और वीतरागता भी उसी से प्राप्त होती है । अतएव यह दोनो नाम भी गुणनिष्पन्न ही हैं । यद्यपि इस अध्ययन के पूर्वोक्त तीनो ही नाम सगत है, तथापि नियुक्तिकार ने इसे विशेषत अप्रमत्त अध्ययन ही कहा है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सम्यक्त्व मे पराक्रम करना या अप्रमत्त वनना एक ही बात है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र को प्राप्त करने का उद्योग करना भी एक ही बात है । इस प्रकार की अप्रमत्तता प्राप्त करने का फल क्या है, यह बात इस अध्ययन के ७३ बोलो मे बतलाई गई है । यहाँ सिर्फ यही कहना पर्याप्त है कि उक्त तीनो नाम सगत हैं । भव्य जीव जो उद्योग' करते हैं वह वीतरागता प्राप्त करने के ही उद्देश्य से करते हैं । अतएव वीतरागसूत्र नाम भी सार्थक ही है । साधारणतया ससार के सभी जीव कोई न कोई उद्योग
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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