SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्वपराक्रम-३५ तुम्हारे साथ भोजन करने नही आ सकते ! भला वह लोग इस प्रकार का अपमान कैसे सहन कर सकते हैं ? ऐसी स्थिति मे अपनें सहधर्मी के लिए या अपने धर्म के लिए कष्ट सहन करना पड़े तो सह लेना उचित है, किन्तु इस विधान को बदलना आवश्यक है। इस प्रथा को मिटाने के लिए अगर कुछ कष्ट भी सहना पडे. तो ऐसा कष्ट-सहन कोई बुरी बात नही है। साराश यह है कि लोग अपने हाथ से काम न करके दूसरो से काम कराने मे अपनी महत्ता मानते हैं। उन्हे इस बात का विचार ही नही है कि अपने हाथ से और दूसरे के हाथ से काम करने-कराने में कितना ज्यादा अन्तर है। ठनठनपाल श्रीमान् था, फिर भी उसकी पत्नी पीसना, कटना आदि काम अपने ही हाथ से करती थी। किन्तु जब वह अपनी पडोसिनो से मिलती तो पडोसिने उसकी हँसी करने के लिए कहतो-'पधारो श्रीमती ठनठनपालजी' ठनठनपालजी की पत्नी को यह मजाक रुचिकर नहीं होता था। - एक दिन इस मजाक से उसे बहुत बुरा लगा । वह उदास होकर बैठी थी कि उसी समय सेठ ठनठनपाल आ गये । अपनी पत्नी को उदास देखकर उन्होने पूछा-'आज उदास क्यो दिखाई देती हो ? सेठानी बोली-तुम्हारा यह नाम कैसा विचित्र है । तुम्हारे नाम के कारण पडोसिनें मेरी हँसी करती है । तुम अपना नाम बदल क्यो नही डालते ? ठनठनपाल ने कहा-मेरे नाम से सभी लेनदेन चल रहा है । अब नाम बदल लेना सरल बात नहीं है। कैसे बदल सकता हूं? उसकी पत्नी बोली-'जैसे बने तैसे तुम्हे यह नाम तो बदलना ही पड़ेगा । नाम न बदला तो मैं अपने
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy