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________________ सम्यक्त्वपराक्रम-२७ करने के उद्देश्य से, सच्चे हृदय से परमात्मा की प्रार्थना करने पर दुष्ट की दुष्टता नष्ट हो जाती है। जैसे द्रव्यरक्षा के लिए दूसरे की शरण ली जाती है, उसी प्रकार परमात्मा या धर्म की शरण लेने से द्रव्य रक्षा के साथ ही साथ भावरक्षा भी हो सकती है । मगर यह भूलना नही चाहिए कि अगर तुम द्रव्य की रक्षा करोगे तो वह द्रव्य के लिए ही होगी और भाव की रक्षा करोगे तो भाव के लिए होगी। यह हुई द्रव्यनिक्षेप की बात । किन्तु इस अप्रमत्तसूत्र मे भाव-अप्रमाद की चर्चा की जायेगी। जैसे द्रव्य-अप्रमाद मे शरीर, घन आदि के भय को दूर करने को सावधानी' की जाती है, वैसे ही भाव-अप्रमाद मे आत्मिक भय को निवारण करने के लिए सावधानी रखी जाती है । अज्ञान, कषाय आदि विकारो पर विजय प्राप्त करने के लिए जो उद्योगप्रयत्न किया जाता है वह भाव-अप्रमाद है। अज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'न ज्ञानम् अज्ञानम्' यह नञ् समास है । नञ् समास के दो भेद हैं । कहा भी है नजयो द्वौ समाख्यातो, पर्युदासप्रसज्यको । पर्युदासः सदृशग्राही, प्रसज्यस्तु निषेधकृत् ॥ अर्थात्-नञ् समास के दो भेद हैं - एक पर्युदास, दूसरा प्रसज्य । पर्यु दास सदृश अर्थ को ग्रहण करता है और प्रसज्य केवल निषेध अर्थ का ग्राहक है । . . यहाँ आशय यह है कि ऊपर जो 'न ज्ञानम् अज्ञानम्' कहा गया है सो उसका अर्थ यह नहीं है कि न जानना ही अज्ञान है। एकान्त ऐसा अर्थ करने से अनेक अनर्थ हो सकते
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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