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________________ २४२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) आ बैठा । उस खरहे पर दयाभाव लाकर तुमने अढाई दिन तक अपना पैर ऊपर उठाये रखा था । इस नम्रता और करुणा की बदौलत ही तुम्हे यह मनुष्यभव प्राप्त हुआ है। हाथी के भव मे तो तुमने इतनी नम्रता और करुणा धारण की और इस भव मे साधारण से कष्ट सहन न कर सकने । के कारण साधुपन छोडने को तैयार हो गए। पहले के काटो की तुलना मे यह कष्ट तो बहुत साधारण है । तिस पर पहले हाथी थे और अब मनुप्य हो । ऐसी स्थिति मे विचार करके तो देखो कि तुम्हे कितनी सहिष्णता रखनो चाहिए । हे मेघ ! हाथी की पर्याय मे जीवो पर करुणा रखने और नम्रता धारण करने से इस भव मे तुम राजा श्रेणिक के पूत्र और मेरे शिष्य हो सके हो। हाथी के भव में इतनी अधिक सहनशीलता धारण की थी तो क्या इस भव में थोडी-सी सहिष्णुता भी नही रख सकते ? साधुनो की ठोकर लगने से ही साधुपन छोडने के लिए तैयार हो गये हो । क्या साधुपन त्याग देने से तुम सुखी बन जाओगे ? मेव ! तुम इन सब बातो पर विचार करो और साधुपन त्यागने का विचार त्याग दो।' भगवान् के वचन सुनकर मेधकुमार प्रभावित हुआ। उसने यहा तक निश्चय कर लिया कि सयम-पालन के लिए आवश्यक आँखो के सिवाय मेरा सारा शरोर साधुओ को सेवा के लिए समर्पित है । इस प्रकार की नम्रता धारण करने से मेघकुमार आयुक्षय होने पर विजय नामक विमान मे उत्पन्न हुआ । वहा से पुन मनुष्य-जन्म धारण कर सिद्ध, वुद्ध और मुक्त होगा । विचार त्याग न सुनकर म सयम-पाल
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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