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________________ २४०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) सब जीव सद्गति पाने की ही अभिलापा करते हैं, परन्तु इस अभिलाषा के साथ विनम्र बनने की इच्छा नही करते है । यद्यपि विनम्रता धारण करने में किसी का किसी प्रकार का प्रतिवन्ध नही है, फिर भी आत्मा धर्म के समय अकड कर रहता है । आत्मा किस प्रकार अकडबाज बन जाता है, यह बात महावीर स्व मी ने शास्त्र मे बतलाई है। ज्ञातासूत्र मे बतलाया गया है कि मेघकुमार ने भगवान महावीर के निकट दीक्षा अगीकार की थी । वह सब से छोटे साधु थे, अत उन्हे सोने के लिए रात्रि मे सब से अन्त का स्थान मिला । मेघकुमार की शय्या अन्त मे होने के कारण रात्रि में उनकी शय्या के पास से जब माधु बाहर जाते-आते तो उनके पैर की ठोकर मेघकुमार को लगती । उन्हे आराम से नीद नही आई । साधुओ की ठोकरें लगने के कारण नीद न आने से वह सोचने लगे - 'यह तो जान-बूझकर नरक की यातना भोगना है । यहा मेरी कोई कद्र ही नहीं करता । मै जब राजकुमार था तब यही साघु मेरी कद्र करते थे । जब मैं साध हो गया हू तो कोई परवाह ही नहीं करता ।। उलटी इनकी ठोकरे खानी पड़ रही है। ऐसा साधुपन मुझमे नही पलने का। बस सुवह होते ही यह साधुपन छोडकर मै घर चल दू गा । लेकिन चुपचाप चला जाना ठीक न होगा। जिनके निकट मैने दीक्षा अगीकार की है, उन भगवान् की अज्ञा लेकर और उन्हे यह उपकरण सौंपकर अपने घर का रास्ता लूगा। मेधकुमार ने रात के समय यह विचार किया और सुबह होते ही वह भगवान् के पास आ पहुचे । भगवान् तो
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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