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________________ तीसरा बोल-१६५ साराश यह है कि जगत् के कल्याण के लिए ही भगवान् ने धर्मोपदेश दिया है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र यह रत्नत्रय रूप धर्म हो सच्चा धर्म है। जैनधर्म तो इस रत्नत्रय को ही धर्म मानता है । 'भगवान् न सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र रूप धर्म को जो प्ररूपणा को है, वह धर्म सब जोवो के कल्याण के लिए धर्म के विषय मे यह व्याख्या सुनकर कोई कह सकता है कि आप धर्म को जीवो का कल्याण करने वाला प्रकट करके उसकी प्रशसा करते है, मगर यदि वर्म का इतिहास देखा जाये तो प्रतीत होगा कि धर्म के कारण जो अत्याचार और जुल्म किये गये हैं, वैसे शायद ही अन्य किसो कारण किये गये हो । इतिहास स्पष्ट बतलाता है कि धर्म के कारण बड़े से बडे अत्याचार ओर घोर से घोर अन्याय किये गये हैं। ऐसी स्थिति मे जिस धर्म के कारण ऐसे अन्याय और अत्याचार किये जाते हैं, उस धर्म को जगत को क्या आवश्यकता है ? कितनेक लोग दो कदम आगे वढकर इन्ही युक्तियो के आधार से यहाँ तक कहते नही हिचकते कि धर्म और ईश्वर का वहिष्कार कर देना चाहिए । उनका यह भी कथन है कि ससार मे यदि ईश्वर और धर्म न होता तो अधिक प्रानन्द-मगल होता । मगर ईश्वर और धम ने तो इतने जुल्म ढाये हैं कि इतिहास के पन्ने के पन्ने रक्त से रगे हुये हैं । हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, वैष्णव आदि के बीच धर्म के नाम पर बडे-बड़े युद्ध लड गरे है और खूनखच्चर हुये है । धर्म के नाम पर ऐसे-ऐसे अनय हर सुने जाते हैं कि न पूछिए बात । इग्लेण्ड मे 'मेरी' नाम
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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