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________________ ८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) देता हूं। इस कथानक से विदित होता है कि शय्यंभव आचार्य की इच्छा दशवकालिक सूत्र को सूत्रो मे ही मिला देने की थी; मगर उस समय का सघ सगठित था। सघ ने आचार्य से प्रार्थना की - 'भगवन । वह शिष्य आपका पुत्र था तो क्या यह सघ आपका पुत्ररूप नही है ? काल धीरे-धीरे विषम होता जा रहा है और विषमकाल मे विशाल और गम्भीर सूत्रो का अध्ययन करना अत्यन्त कठिन हो आता है। अतएव आत्मार्थी भद्रपुरुषो के लिए यह सूत्र अतीव उपकारक होगा । अनुग्रह कर इसे इसी रूप में रहने दीजिए।' शय्यभव आचार्य ने कहा- 'इस सूत्र में जो भी कुछ है, भगवान् की ही वाणी है। इसमें मेरा अपना कुछ भी नही है।' इस प्रकार कहकर उन्होंने दशवैकालिकसूत्र स्थविरो के समक्ष रख दिया । सूत्र देखकर स्थविरो ने उसे बहुत पसन्द किया और फिर तो उसने आचाराग का स्थान ग्रहण कर लिया । पहले पहल यही सूत्र पढाया जाने लगा। पानी में किसी प्रकार का भेद नहीं होता। जिनवाणी के विपय में भी यही बात है । जिनवाणी भी सब के लिए समान है। पानी चाहे तालाब मे हो चाहे कप मे हो, आता सब एक ही जगह से है । अर्थात् वर्षा होने पर ही सब जगह पहुचता है। इसलिए पानी में किसी प्रकार का भेद नही होता । परन्तु जब लोग तालाब या कुएँ से पानी का घडा भर लाते हैं तो उसमें अहकार का मिश्रण हो जाता है. यह पानी मेरा है, यह तेरा है, इस प्रकार का भेदभाव उत्पन्न हो जाता है । परन्तु वास्तव में पानी मे कुछ भी
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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