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________________ तीसरा बोल-१६१ से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि धर्मश्रद्धा क्या है ? धर्मश्रद्धा का स्वरूप समझ लेने पर उसका फल समझना सरल होगा । जिस फल को उद्देश्य बनाकर कार्य किया जाता है, वह फल न मिला ता,कार्य निष्फल माना जाना है। उदाहरणार्थ किसी मनुष्य ,ने फल की प्राप्ति के उद्देश्य से वृक्ष रोपा । अब उसे यदि फल प्राप्त न हो सके तो वह यही मानेगा कि मेरा वृक्षारोपणकार्य, व्यर्थ हो गया । इस प्रकार धर्मश्रद्धा का फल क्या है..,यह देखने से पहले यह देख लेना आवश्यक है कि अमुक व्यक्ति मे धमश्रद्धा है या नही ? आजकल बुद्धिवाद का जमाना है । लोग धर्मश्रद्धा को बुद्धि की कसौटी पर चढा कर उसका पृथक्करण करना चाहते हैं । ऐसे बुद्धिवाद के युग मे धर्मश्रद्धा को दृढ करने के लिये और धर्मश्रद्धा का वास्तविक स्वरूप जनता के समक्ष “रखने की आवश्यकता प्रकट करने के लिये धर्मश्रद्धा के विषय में मैं कुछ विस्तार के साथ विवेचन करना चाहता हूं। यद्यपि अधिक समय न होने के कारण इस विषय पर पूरा प्रकाश नही डाला जा सकता तथापि यथाशक्ति इतना कहने का अवश्य प्रयत्न करूँगा कि धर्म क्या है ? श्रद्धा क्या है ? और धर्मश्रद्धा का जीवन, मे स्थान क्या है ? धर्म क्या है ? इस उन का अनेक महा माओ ने अपनी-अपनी धर्मपुस्तको मे अपने-अपने मन्तव्य के अनुसार समाधान किया है । इतना ही नही वरन् अब तक जो-जो हान् लोकोत्तर पुरुष हो गये है, उन्होने भी धर्म का ही उपदेश दिया है और धर्म का ही समर्थन किया है। वह
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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